अनासक्ति का लाभ होते ही प्रेमसाधना का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। तब हम कर्म के परिणाम की ओर ध्यान नहीं देते..। 4 जुलाई को स्वामी विवेकानंद का स्मृति दिवस है, इस अवसर पर उनका चिंतन..
स्वार्थ के लिए किया गया कार्य दास का कार्य है। कोई कार्य स्वार्थ के लिए है अथवा नहीं, इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य आनंददायक होता है। सच्चे प्रेम के साथ किया हुआ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिसके फलस्वरूप शांति और आनंद न आए। सच्चे प्रेम से प्रेमी अथवा उसके प्रेमपात्र को भी कष्ट नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, मान लो एक मनुष्य एक स्त्री से प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह स्त्री केवल उसी के पास रहे। वह चाहता है कि वह स्त्री उसी के पास बैठे, उसी के पास खड़ी रहे तथा उसी की इच्छानुसार खाए-पिए और चले-फिरे। वह स्वयं उस स्त्री का गुलाम हो गया है और चाहता है कि वह स्त्री भी उसकी गुलाम होकर रहे। यह तो प्रेम नहीं है। यह गुलामी का एक प्रकार का विकृत भाव है, जो ऊपर से प्रेम-जैसा दिखाई देता है।
जब तुम अपने पति, स्त्री, अपने बच्चों, यहां तक कि समस्त विश्व को इस प्रकार प्रेम करने में सफल हो सकोगे कि उससे किसी भी प्रकार दु:ख, ईष्र्या अथवा स्वार्थ की कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी, केवल तभी तुम ठीक-ठीक अनासक्त हो सकोगे।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, 'मुझे कर्म से कोई लाभ नहीं, लेकिन मैं कर्म इसलिए करता हूं, क्योंकि मुझे संसार से प्रेम है।' अनासक्ति का लाभ होते ही हमें अपनी प्रेमसाधना का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है और हम मुक्त हो जाते हैं। तब हम बिल्कुल स्वाधीन हो जाते हैं और कर्म के फलाफल की ओर ध्यान नहीं देते। फिर कौन परवाह करता है कि कर्मफल क्या होगा?
['कर्मयोग' से साभार]
स्वार्थ के लिए किया गया कार्य दास का कार्य है। कोई कार्य स्वार्थ के लिए है अथवा नहीं, इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य आनंददायक होता है। सच्चे प्रेम के साथ किया हुआ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिसके फलस्वरूप शांति और आनंद न आए। सच्चे प्रेम से प्रेमी अथवा उसके प्रेमपात्र को भी कष्ट नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, मान लो एक मनुष्य एक स्त्री से प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह स्त्री केवल उसी के पास रहे। वह चाहता है कि वह स्त्री उसी के पास बैठे, उसी के पास खड़ी रहे तथा उसी की इच्छानुसार खाए-पिए और चले-फिरे। वह स्वयं उस स्त्री का गुलाम हो गया है और चाहता है कि वह स्त्री भी उसकी गुलाम होकर रहे। यह तो प्रेम नहीं है। यह गुलामी का एक प्रकार का विकृत भाव है, जो ऊपर से प्रेम-जैसा दिखाई देता है।
जब तुम अपने पति, स्त्री, अपने बच्चों, यहां तक कि समस्त विश्व को इस प्रकार प्रेम करने में सफल हो सकोगे कि उससे किसी भी प्रकार दु:ख, ईष्र्या अथवा स्वार्थ की कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी, केवल तभी तुम ठीक-ठीक अनासक्त हो सकोगे।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, 'मुझे कर्म से कोई लाभ नहीं, लेकिन मैं कर्म इसलिए करता हूं, क्योंकि मुझे संसार से प्रेम है।' अनासक्ति का लाभ होते ही हमें अपनी प्रेमसाधना का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है और हम मुक्त हो जाते हैं। तब हम बिल्कुल स्वाधीन हो जाते हैं और कर्म के फलाफल की ओर ध्यान नहीं देते। फिर कौन परवाह करता है कि कर्मफल क्या होगा?
['कर्मयोग' से साभार]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें