बचपन की यादे आज भी उतनी ताजा है जब हम मुंशी दर्जी की सिली हुयी नई डिज़ाइन वाली बिसकोट (शर्ट) और पाजामा पहनकर विजयादशमी के दिन सुबह से ही शाम को मंदिर पर लगने वाले मेले को देखने के लिए घर के
सभी बड़ों से पैसे पाने के लिये प्रयासरत हो जाते थे । एक रुपया से लेकर पाँच रुपये
तक मिलते थे । पाँच रुपये सबसे अंत मे पूज्य बाबा द्वारा कई हिदायतों के साथ मिलते
थे । सारी हिदायते स्वीकार करते हुए मन मे
यह ठान लेते थे कि अभी पैसा तो मिल जाय करेगे वही जो हम चाहेगे । मेले मे क्या खाना है
? क्या लेना है ? और क्या करना है ? अपने मन की योजना की घर के बड़ों को भनक भी लग जाय तो मेला देखने के पैसो की जगह उपदेशों
की झड़ी लग जाती । वसूली का यह कार्यक्रम चल ही रहा था तभी नगिंदर या लालजी या कोई और लड़का भागा भागा आता कि मंदिर पर दुकाने आना शुरू हो गयी है । फिर
क्या था ? एक दो तीन जितने भी मिलते सभी दोस्तो के साथ भागकर मेलास्थल का मुआइना करने पहुच जाते
।
जितनी जल्दी हो सके लौटकर घर और आसपास के बच्चो को सूचित करना की मेला कहा तक लग चुका है की होड़ हम सभी बच्चो मे लग जाती । सभी बच्चे घर पर आकर इधर उधर अस्थिर सा मेले के बारे मे चर्चा करते हुये देखते रहते की किस रास्ते से कितने लोग नए नए परिधान मे मेले की तरफ जा रहे है। उछलते कूदते शाम के समय वह घड़ी आ ही जाती जब सीटी, पिपीहरी, बांसुरी की आवाजों से मिश्रित शोरगुल घर तक सुनाई पड़ने लगता। फिर क्या था ? नया नया कपड़ा पहने जेब मे दस या बारह रुपये की पूजी के साथ मेले की तरफ जिस विश्वास के साथ कदम बढ़ते ऐसा लगता कि आज जो चाहे अपने मन का खरीदना है । सारी शौक पूरी करनी है । बभ्नइया पार करते करते रास्ते से ही जतोले और घरिया कि दुकान शुरू हो जाती या फिर गाव के लोहारों कि गड़ारी कि दुकाने रास्ते के इधर उधर लगी रहती । जो भी साथी साथ रहता आपस मे कोई कुछ खरीदने को कहता तो कोई कुछ और कोई कहता नहीं यार पहले चलो एक चक्कर पूरे मेले का लगा ले उसके बाद खरीदा जाएगा। इतने मे कोई लड़का लाल रंग का प्लास्टिक का चश्मा लगाए हाथ मे प्लास्टिक कि घड़ी लगाए बड़े शान से बरफ चाटते हुए मिल जाता और अंगुली का इसारा करते हुए कहता उधर मत जाओ तुम्हारे बाबा वहा बैठे है। फिर उधर से हम दूसरी तरफ निकल जाते।
एक लाइन बिसारतीयों की दुकानों की दूसरी मिठाइयो की बाकी सब मिक्स और बिना किसी क्रम के सजी रहती । पान की दुकान पर चोरी से जाकर पान खाना जिससे की कोई बड़ा बुजुर्ग गाव का देख न ले, कमोबेश हर बच्चे का उद्द्येश्य रहता और इसमे सफल रहने पर वह अपने आपको बड़ा वीर समझने लगता । ..............
जितनी जल्दी हो सके लौटकर घर और आसपास के बच्चो को सूचित करना की मेला कहा तक लग चुका है की होड़ हम सभी बच्चो मे लग जाती । सभी बच्चे घर पर आकर इधर उधर अस्थिर सा मेले के बारे मे चर्चा करते हुये देखते रहते की किस रास्ते से कितने लोग नए नए परिधान मे मेले की तरफ जा रहे है। उछलते कूदते शाम के समय वह घड़ी आ ही जाती जब सीटी, पिपीहरी, बांसुरी की आवाजों से मिश्रित शोरगुल घर तक सुनाई पड़ने लगता। फिर क्या था ? नया नया कपड़ा पहने जेब मे दस या बारह रुपये की पूजी के साथ मेले की तरफ जिस विश्वास के साथ कदम बढ़ते ऐसा लगता कि आज जो चाहे अपने मन का खरीदना है । सारी शौक पूरी करनी है । बभ्नइया पार करते करते रास्ते से ही जतोले और घरिया कि दुकान शुरू हो जाती या फिर गाव के लोहारों कि गड़ारी कि दुकाने रास्ते के इधर उधर लगी रहती । जो भी साथी साथ रहता आपस मे कोई कुछ खरीदने को कहता तो कोई कुछ और कोई कहता नहीं यार पहले चलो एक चक्कर पूरे मेले का लगा ले उसके बाद खरीदा जाएगा। इतने मे कोई लड़का लाल रंग का प्लास्टिक का चश्मा लगाए हाथ मे प्लास्टिक कि घड़ी लगाए बड़े शान से बरफ चाटते हुए मिल जाता और अंगुली का इसारा करते हुए कहता उधर मत जाओ तुम्हारे बाबा वहा बैठे है। फिर उधर से हम दूसरी तरफ निकल जाते।
एक लाइन बिसारतीयों की दुकानों की दूसरी मिठाइयो की बाकी सब मिक्स और बिना किसी क्रम के सजी रहती । पान की दुकान पर चोरी से जाकर पान खाना जिससे की कोई बड़ा बुजुर्ग गाव का देख न ले, कमोबेश हर बच्चे का उद्द्येश्य रहता और इसमे सफल रहने पर वह अपने आपको बड़ा वीर समझने लगता । ..............
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