हमारे ऋषियों ने "तमसो मा ज्योतिर्गमय"
'मेरे पथ के दीपक पावन मेरा अंतर आलोकित कर/ यदि तू जलता बाहर/ उन्मन/ अधिक प्रखर जल मेरे अंदर।' -गजानन माधव मुक्तिबोध
देहरी पर दिया/ बाट गया प्रकाश/ कुछ भीतर कुछ बाहर/ बट गया हिया- कुछ गेही, कुछ यायावर/ हवा का हल्का झोंका/ कुछ सिमट, कुछ बिखर गया/ लौ काप कर थिर हुई: मैं सिहर गया।
'दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहा बुझाओगे।
मैं मिट्टी का दीपक/ मैं ही हू उसमें जलने का तेल मैं ही हूं दीपक की बत्ती/ कैसा है यह विधि का खेल।-अज्ञेय
'तन का दिया प्राण की बाती/ दीपक जलता रहा रात भर।' -गोपाल सिह नेपाली
'जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना/ अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।' =नीरज
इस नदी की धार से ठडी हवा आती तो है/ नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है/ एक चिगारी कहीं से ढूढ़ लाओ दोस्तों/ इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।-दुष्यत कुमार
दुबली विधवा जैसी लौ की गठरी लेकर कोने में गल रही उदास'
'जहा प्रकाशपुंज की सपनीली आभा है/ थोड़ा सा प्रकाश/ अपनी अंजुरी में भर कर लौट आती हू/ अपने नीड़ पर फैला देती हू उसे।'
के इस कथन में शायद इसीलिए अफसोस की एक दूसरी बानगी दृष्टिगत होती है- 'कभी मेरा भी अपना कद था और थी एक जमीन/ नहीं भुरभुरी जिसके नीचे की मिट्टी/ क्या करेगा कोई विश्वास/ एक विराट ज्योति लील गयी मेरी नन्हीं लौ।' -युवा कवि मोहनकुमार डेहरिया
'मैं कम उजाले में भी पढ़ लिख लेता हू/ अपने दीगर काम मजे में निपटा लेता हू/ सिर्फ इतने जतन से/ कल के लिए कुछ रोशनी बचा लेता हू।'-कवि लीलाधर मडलोई
'चलो कि टूटे हुओं को जोड़े/ जमाने से रूठे हुओं को मोड़े/ अंधेरे में इक दिया तो बालें/ हम आधियों का गुरूर तोड़े/ धरा पे लिख दें हवा से कह दें/ है महगी नफरत औ' प्यार सस्ता।' -डा. ओम निश्चल,
'अप्प दीपो भव' यानी स्वय अपना दीपक बनो। बुद्ध
'मधुर मधुर मेरे दीपक जल/ प्रियतम का पथ आलोकित कर।'
'इस अंध तम-जाल पर रश्मि की बेल के/ स्वर्ण के फूल खिल जायें, लहरायें/मन की तिमिर राशि वन के कुसुम-हास में घुल, वनश्री विभा में बदल जायें।' -महादेवी वर्मा
'है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।'
'दिखलाई देता कुछ कुछ मग/ जिस पर शकित हो चलते पग/ दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है/ अंधकार बढ़ता जाता है।' -बच्चन
देहरी पर दिया/ बाट गया प्रकाश/ कुछ भीतर कुछ बाहर/ बट गया हिया- कुछ गेही, कुछ यायावर/ हवा का हल्का झोंका/ कुछ सिमट, कुछ बिखर गया/ लौ काप कर थिर हुई: मैं सिहर गया।
'दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहा बुझाओगे।
मैं मिट्टी का दीपक/ मैं ही हू उसमें जलने का तेल मैं ही हूं दीपक की बत्ती/ कैसा है यह विधि का खेल।-अज्ञेय
'तन का दिया प्राण की बाती/ दीपक जलता रहा रात भर।' -गोपाल सिह नेपाली
'जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना/ अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।' =नीरज
इस नदी की धार से ठडी हवा आती तो है/ नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है/ एक चिगारी कहीं से ढूढ़ लाओ दोस्तों/ इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।-दुष्यत कुमार
दुबली विधवा जैसी लौ की गठरी लेकर कोने में गल रही उदास'
'जहा प्रकाशपुंज की सपनीली आभा है/ थोड़ा सा प्रकाश/ अपनी अंजुरी में भर कर लौट आती हू/ अपने नीड़ पर फैला देती हू उसे।'
के इस कथन में शायद इसीलिए अफसोस की एक दूसरी बानगी दृष्टिगत होती है- 'कभी मेरा भी अपना कद था और थी एक जमीन/ नहीं भुरभुरी जिसके नीचे की मिट्टी/ क्या करेगा कोई विश्वास/ एक विराट ज्योति लील गयी मेरी नन्हीं लौ।' -युवा कवि मोहनकुमार डेहरिया
'मैं कम उजाले में भी पढ़ लिख लेता हू/ अपने दीगर काम मजे में निपटा लेता हू/ सिर्फ इतने जतन से/ कल के लिए कुछ रोशनी बचा लेता हू।'-कवि लीलाधर मडलोई
'चलो कि टूटे हुओं को जोड़े/ जमाने से रूठे हुओं को मोड़े/ अंधेरे में इक दिया तो बालें/ हम आधियों का गुरूर तोड़े/ धरा पे लिख दें हवा से कह दें/ है महगी नफरत औ' प्यार सस्ता।' -डा. ओम निश्चल,
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