रविवार, 1 मई 2011

जागरण में छपे लेख

हर श्वास में ऊँ
अक्षर का अर्थ है जिसका क्षरण न हो। ऐसे तीन अक्षरों -अ उऔर मसे मिलकर बना है ऊँ।माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्मांडसे सदा ऊँकी ध्वनि निसृतहोती रहती है। हमारी हर सांस से भी ऊँकी ध्वनि ही निकलती है। यही हमारी श्वास की गति को नियंत्रित करता है। माना गया है कि अत्यंत पवित्र और शक्तिशाली है ऊँ।किसी भी मंत्र से पहले यदि ऊँजोड दिया जाए, तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ऊँलगाना आवश्यक होता है, जैसे-श्रीराम का मंत्र- ऊँरामायनम:। विष्णु का मंत्र-ऊँ विष्णवेनम:। शिव का मंत्र- ऊँनम: शिवाय,तो प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि ऊँसे रहित कोई मंत्र फलदायीनहीं होता, चाहे उसका जितना भी जाप हो। मंत्र के रूप में मात्र ऊँभी पर्याप्त है। माना जाता है कि एक बार ऊँका जाप हजार बार किसी मंत्र के जाप से अधिक महत्वपूर्ण है।
ऊँका ही दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है। योगदर्शन के अनुसार तस्य वाचक: प्रणव: अर्थात उस ईश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ऊँएवं ब्रह्ममें कोई भेद नहीं है। ऊँअक्षर है, इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता। छांदोग्योपनिषदमें कहा गया है--ऊँ इत्येतत्अक्षर:, अर्थात् ऊँअविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।
ऊँ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषाथरें का प्रदायक है। मात्र ऊँका जाप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली। माना जाता है कि कौशीतकीऋषि निस्संतान थे। संतान-प्राप्ति के लिए उन्होंने सूर्य का ध्यान कर ऊँका जाप किया, तो उन्हें पुत्र-प्राप्ति हो गई। गोपथ ब्राह्मणमें उल्लेख है कि जो कुश के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर एक हजार बार ऊँरूपी मंत्र का जाप करता है, उसके समस्त अर्थ और काम सिद्ध हो जाते हैं-सिद्धयंति अस्यअर्था:सर्वकर्माणिच।श्रीमद्भागवत में ऊँके महत्व को कई बार रेखांकित किया गया है। गीता के आठवें अध्याय में यह उल्लेख मिलता है कि जो ऊँअक्षर रूप ब्रह्मका उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है-
ऊँअर्थात ओम तीन अक्षरों से बना है। ये तीन अक्षर हैं अ,उएवं म।अका अर्थ है आविर्भाव या उत्पन्न होना, उका तात्पर्य है उठना, उडना अर्थात विकास, मका मतलब है मौन हो जाना अर्थात ब्रह्मलीन हो जाना। ऊंसंपूर्ण ब्रह्मांडकी उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ऊंमें प्रयुक्त अतो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं उउडने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है ऊर्जा-सम्पन्न होना। किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थलजाने पर वहां की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उडता हुआ देखता है। मौन हो जाने का अपना महत्व है। मौन का महत्व ज्ञानियोंने बताया ही है। अंग्रेजी में उक्ति है-साइलेंस इजसिल्वर ऐंडएब्सल्यूटसाइलेंसइजगोल्ड। गीता में श्रीकृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौन का ही पर्याय बताया है-मौनं चैवास्मिगुह्यानां।वहीं दार्शनिकोंका मानना है कि अधिक बोलने से शारीरिक और मानसिक दोनों शक्तियों का क्षय होता है।
ध्यान बिंदुपनिषद्के अनुसार, ऊँमंत्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जाप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति जरूर होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।
सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी ऊँको महत्व प्राप्त है। बौद्ध दर्शन में ऊँ मणिपेऽहुमका प्रयोग जाप एवं उपासना के लिए प्रचुरतासे होता है। इस मंत्र के अनुसार, ऊँको मणिपुर चक्र में अवस्थितमाना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी ऊँके महत्व को दर्शाया गया है। कबीर निर्गुण संत एवं कवि थे। उन्होंने भी ऊँके महत्व को स्वीकारा और इस पर साखियांभी लिखीं। उनकी एक साखी यहां दी जा रही है- ओ ओंकार आदि में जाना। लिखिऔमेंटेताहि न माना। ओ ओंकार लिखैजो कोई। सोई लखिमेटणान होई।।
गुरुनानक ने ऊँके महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा- ओम सतनाम कर्ता पुरुष निर्भोनिर्बेरअकालमूर्त।-ऊँ सत्य नाम जपने वाला पुरुष निर्भय, बैर-रहित एवं अकाल-पुरुष के सदृश हो जाता है। इस तरह ऊँके महत्व को सभी संप्रदाय के धर्म-गुरुओं, उपासकों, चिंतकों ने प्रतिपादित किया है, क्योंकि यह एकाक्षरीमंत्र साधना में सरल है और फल प्रदान करने में सर्वश्रेष्ठ। यह ब्रह्मांडका नाद है एवं मनुष्य के अंतर में स्थित ईश्वर का प्रतीक। किसी भी मंत्र के पहले ऊँजोडने से वह शक्तिसंपन्न हो जाता है। एक बार ऊँका जाप हजार बार किसी मंत्र के जाप से अधिक महत्वपूर्ण है।
ऊँअर्थात ओम तीन अक्षरों से बना है। ये तीन अक्षर हैं अ,उएवं म।अका अर्थ है आविर्भाव, उका तात्पर्य है उठना या उडना, मका मतलब है मौन हो जाना।
[डॉ.भगवतीशरण मिश्र]

असीमित मौन
महान संत महर्षि रमण मौन रहते हुए भी अपने पास आने वालों की सूक्ष्म से सूक्ष्म शंकाओं का समाधान कर देते थे। महात्मा गांधी सप्ताह में एक दिन मौन रहा करते थे। मौन आंतरिक आनंद लुटाता है। यह हमारी आत्मा की आवाज है। इसकी साधना से हमें वे सभी सिद्धियां मिल जाती हैं, जो अन्य कठिन योग साधनाओं से भी प्राप्त नहीं हो पाती हैं।
वाणी चार प्रकार की होती है। नाभि में परावाणी, हृदय में पश्यंति,कंठ में मध्यमा वाणी और मुख में वैखरी वाणी निवास करती है। हम शब्दों की उत्पत्ति परावाणीमें करते हैं, लेकिन जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुख में स्थित वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है। इनमें परा और पश्यंतिसूक्ष्म तथा मध्यमा व वैखरी स्थूल है। अनावश्यक वाणी को अपने मुंह से नहीं निकालना और आवश्यक कथन में भी वाणी का संयम हमारे लिए बहुत बडी साधना है। हमारे योग साहित्य में दो प्रकार के मौन का उल्लेख किया गया है। प्रथम मौन का सीधा संबंध वाणी से है, जो बहिमौनकहलाता है। अपनी वाणी को वश में करना, न बोलना बहिमौनके अंतर्गत आता है। दूसरा मौन आत्मा से जुडा है, जो अंतमौनकहलाता है। ईष्र्या-द्वेष या अपवित्र विचारों को अपने मन से निकाल कर आत्मोन्मुखीबनना अन्तमौनहै। दूसरों के हित के लिए कहा गया कथन भी मौन के अंतर्गत आता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने मौन की महत्ता जान ली है, वह दुख से कभी विचलित नहीं हो सकता। वह न तो सुख में मगन हो सकता है और न ही दुख से दुखी। वह राग, द्वेष, भय, क्रोध आदि विकारों से दूर रहता है। सच्चे अर्थो में ऐसे व्यक्ति ही साधु कहलाते हैं। यदि आप मौन रहते हैं, तो स्पष्ट है कि आप सहनशील हैं। आप यदि अध्यात्म-पथ की ओर उन्मुख होना चाहते हैं, तो मौन आपके लिए सशक्त माध्यम है। मानसिक तनाव, व्याकुलता और अशांति के क्षण में यह क्षण शांतिदायकहोता है। कहा गया है कि मौन व्रत में ही मुनि जनों की प्रतिष्ठा सुरक्षित रहती है।
जो कार्य बोलने से नहीं हो पाता है, वह इससे सहज, सरल बन जाता है। यदि आप कलह और निंदा से बचना चाहते हैं, तो उसका एकमात्र उपाय मौन है।
[डॉ. हरि प्रसाद दुबे]

राम की श्री है सीता
भगवती सीता श्रीरामचंद्र की शक्ति और राम-कथा की प्राण है। यद्यपि वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को जानकी-जयंती मनाई जाती है, किंतु भारत के कुछ क्षेत्रों में फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को सीता-जयंती के रूप में मान्यता प्राप्त है। ग्रंथ निर्णयसिंधुमें कल्पतरु नामक प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ देते हुए लिखा है, फाल्गुनस्यचमासस्यकृष्णाष्टम्यांमहीपते।जाता दाशरथेपत्नी तस्मिन्नहनिजानकी., अर्थात् फाल्गुन-कृष्ण-अष्टमी के दिन श्रीरामचंद्र की धर्मपत्‍‌नी जनक नंदिनी जानकी प्रकट हुई थीं। इसीलिए इस तिथि को सीताष्टमीके नाम से जाना गया।
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि त्रेतायुगमें जब भगवान विष्णु श्रीरामचंद्र के रूप में अयोध्या नरेश दशरथ के महल में अवतीर्ण हुए, तभी विष्णु जी की संगिनी भगवती लक्ष्मी महाराज जनक की राजधानी मिथिला में अवतरित हुई। मान्यता है कि एक दिन राजा जनक खेत जोत रहे थे। एक स्थान पर उनके हल की फाल रुकी, तो उन्होंने देखा कि फाल के निकट गढ्डे में एक कन्या पडी है। राजा जनक उस कन्या को अपनी पुत्री मानकर लालन-पालन करने लगे। संस्कृत में हल की फाल को सीता कहते है। इसलिए जनक ने उसका नाम सीता रख दिया।
वेद-उपनिषदों में सीता के स्वरूप का परिचय विस्तार से दिया गया है। ऋग्वेद में स्तुति की गई है, हे असुरों का नाश करने वाली सीते! आप हमारा कल्याण करे। सीतोपनिषद्में सीता को ही मूल प्रकृति अर्थात् आदि शक्ति माना गया है। इस उपनिषद् में उनका परिचय देते हुए कहा गया है- जिसके नेत्र के निमेष-उन्मेष मात्र से ही संसार की सृष्टि-स्थिति-संहार आदि क्रियाएं होती है, वह सीताजीहै। गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में सीताजीको ऐसे नमन करते है- संसार की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाली, समस्त क्लेशों को हरने वाली, सब प्रकार से कल्याण करने वाली, रामचंद्र की प्रियतमा सीताजीको मैं नमस्कार करता हूं।
भगवान श्रीराम की तरह सीता भी षडैश्वर्य-संयुक्ताहै। पद्म पुराण में सीताजीको जगन्माता और भगवान राम को जगत-पिता बताया गया है। अध्यात्म रामायण का कहना है कि एकमात्र सत्य यही है कि श्रीराम ही बहुरूपिणीमाया को स्वीकार कर विश्वरूप में भासित हो रहे है और सीताजीही वह योगमाया है। महारामायणमें सीताजीको ही समस्त शक्तियों का श्चोतघोषित किया गया है।
विवाह से पूर्व सीता महाराज जनक की आज्ञाकारिणी पुत्री तथा विवाहोपरांतमहाराज दशरथ की अच्छी बहू के रूप में सामने आती है। वे रामचंद्र जी की सच्ची सहधर्मिणी साबित होती है। वनवास के कष्टों की परवाह किए बिना वे पति के साथ वन-गमन करती है। वे वाल्मीकि आश्रम में अपने पुत्रों लव-कुश को अच्छे संस्कार देती है। पुत्री, पुत्रवधू, पत्‍‌नी और मां के रूप में उनका आदर्श रूप सामने आता है। सीता जिस कुशलता से कर्तव्यों का पालन करती है, वह प्रेरणादायीहै। रामचंद्रजीको जब सीताजीने वरमालापहनाई, तो वे श्रीराम बन गए। वस्तुत:श्रीराम की श्री सीता ही है। इसीलिए हम सीतारा कहते है या श्रीरा। सही मायनों में रामचंद्र की श्री-रूपा शक्ति सीता ही है। उनका चरित्र अनुकरणीय है।
[डॉ. अतुल टंडन]

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परम पूज्य बाबाजी "कुटी"

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डा. आर. बी. सिंह

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गाँव स्थित आवासीय परिसर "कुटी" का प्रथम प्रवेश द्वार

गाँव स्थित आवासीय परिसर "कुटी" का प्रथम प्रवेश द्वार
पूज्य पिता प्रो. जीत बहादुर सिंह द्वारा इसका निर्माण कराया गया |